एलप्यू सिंह
मेहरबां होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक्त, मैं गया वक्त नहीं हूं कि फिर आ भी ना सकूं।
मिर्जा ग़ालिब
लेकिन वक्त की आंखों में झांक कर हर लम्हे को शायरी की तरह पढ़ने वाले टॉम के लिए ज़िंदगी की किताब का आखिरी पन्ना लिखा जा चुका है।गालिब के इस शेर को उन्होंने रंगमच पर बतौर गालिब कई बार कहा होगा,लोगों को सुनाया होगा । ऊर्दू अदब और शेर-ओ शायरी से उनकी मोहब्बत अनकही नहीं थी,कई बार उन्होंने जिक्र किया है कि अगर आप शायरी से प्यार करते हैं तो ज़िंदगी में कभी बोर नहीं हो सकते।
बोर तो एक जीवन जीने वाले होते हैं, टॉम ने तो एक ज़िंदगी में कई ज़िंदगियां जी हैं। बॉलीवुड में अंग्रेजी एंसेट में बोलते गोरे किरदार निभाते टॉम। रंगमंच पर कभी टैगोर,कभी गांधी कभी साहिर लुधियानवी बनते टॉम।
पंद्रह साल के सचिन तेंदुलकर से उन्ही के अंदाज़ में बतियाते क्रिकेट दीवाने टॉम। जूनून के केशव कलसी टॉम।ज़बान संभाल के,मेरे घर आना ज़िंदगी टॉक शो का संचालक टॉम। हिंदी,ऊर्दू,अंग्रेजी उनके लिए किसी शेर के तीन अलग-अलग मिसरे सरीखें थे,जबान पर मिश्री की तरह वक्त के पिघलते मक्खन की तरह घुलते हुए।
जिस शख्स की शुरुआती शामें मंदिर और चर्च की घंटियों के मिलेजुले स्वर और कुदरती खूबसूरती की गोद में गुज़रे हों । उसकी जहनियत पर उदारवाद की खूबसूरत सुनहली चादर उम्र भर के लिए चढ़ जाती है। खुद को एक खुशनसीब हिंदुस्तानी कहने वाले टॉम की पिछली तीन पुश्तें हिंदुस्तान में रह रही हैं। उनके जन्म से कई साल पहले यानि 1916 में ही दादा दादी अमेरिका के ओहायो से मद्रास के रास्ते लाहौर पहुंचे। तब से मिशनरी बैकग्राउंड से रिश्ता रखने वाला उनका परिवार हमेशा के लिए यहीं का होकर रह गया पिता की पैदाइश सियालकोट की तो टॉम खुद मसूरी में पैदा हुए।
ज़िंदगी के शुरुआती पंद्रह साल मसूरी के पास राजपुर में गुज़रे जहां इनके परिवार का एक ध्यान केंद्र था। टॉम बताते हैं कि एक बार उन्होंने पिता से पूछा कि परिवार यहां क्यों रहता है,तो जहनी तौर पर खुले विचारों के पिता ने कहा कि इस जगह से पच्चीस मील की दूरी पर गंगा और पच्चीस मील की दूरी पर यमुना बहती हैं। इसीलिए ये जगह पवित्र है, खूबसूरत है। ऐसी गंगा जमुनी तहजीब के तले नन्हें टॉम का बचपन गुज़रा। टॉम कहते हैं कि ध्यान केंद्र में पहले ऊर्दू में और फिर कुछ सालों बाद हिंदी में बाइबल पढ़ी जाने लगी।
ईसाई परिवार से रिश्ता होने पर भी दूसरे मज़हब,तहज़ीब और ज़बान को लेकर उनकी समझ का श्रेय उनकी परवरिश को ही दिया जा सकता है। खाने की टेबल पर माता पिता सियासत से लेकर दर्शन तक पर बात करते थे। तीन बहन भाईयों में सबसे छोटे टॉम पर इस माहौल का खासा असर पड़ा
यही वजह है कि पिछले साल एक टीवी इंटरव्यू में जब उनसे पूछा गया कि आज के हालातों पर उनकी क्या सोच है तो वो नम्र लहजे से मद्धिम आवाज़ में कहते हैं-आज के सियासतदान इस देश के खूबसूरत समाज को आपस में जोड़ने वाली महीन डोर की नजाकत को समझ नहीं पा रहे हैं। वो कहते हैं कि ये इसी देश में संभव है कि मुख्तलिफ़ जबान और मजहब और प्रांत के लोग आपस में प्यार से एक मिली जुली संस्कृति का हिस्सा बन कर रहते हैं।
ना तो ये अमेरिका में है ना किसी और देश में ऐसा मुमकिन है। वो कहते हैं कि ये नाजुक डोर उस खूबसूरत सपने की तरह है,जिसे हम अब तलक जी रहे हैं। इसे समझना जरुरी है। इससे पहले कि देर हो जाए। टॉम ने 70 के दशक में बॉलीवुड में कदम रखा,लेकिन टॉम की फिल्मों में आने की कहानी बॉलीवुड के उस मुहावरे पर फिट बैठती है,जिसके मुताबिक फिल्मों का जादू इस देश में लोगों के सिर चढ़ कर बोलता है। हरियाणा के जगाद्रि
में बतौर टीचर काम करने वाले टॉम की ज़िंदगी राजेश खन्ना की आराधना ने बिल्कुल बदल दी। अमेरिका में वियतनाम वॉर से पनपी घुटन और दिमागी उलझन से दो चार होने के बाद आराधना उनके लिए जादुई नशे सा असर कर गई
खुद को राजेश खन्ना का भक्त कहने वाले टॉम के लिए बॉलीवुड में एक्टर बनने का असंभव सा लगने वाला सपना उसी वक्त आंखों में पैदा हुआ। वो राजेश खन्ना की एक्टिंग। फिल्म के संगीत से अभिभूत थे। आराधना से पहले
उन्होंने सिर्फ दो हिंदी फिल्में देखी थी।लेकिन आराधना के बाद 300 फिल्मों में काम किया। ये कैसे मुमकिन था। वो अंग्रेज दिखते थे। लेकिन इसकी परवाह ना कर फिल्मों में एक्टिंग को नशा बना लिया। फिर एफटीआईआई का सफर। नसीर और बेंजामिन गिलानी जैसों की दोस्ती और 1976 में चरस फिल्म से बॉलीवुड में दाखिला। एफटीआईआई में ही एक्टिंग और क्रिकेट दोनों से प्यार हुआ। क्रिकेट से प्रेम इतना कि ज़िंदगी की सांझ में भी तरुणाई की धड़कने तेज़ हो जाया करती थी। कहते भी थे कि वो स्पोर्ट्समैन बनना चाहते थे ।
एक कामयाब और हर लिहाज से माने गए अभिनेता टॉम ज़िंदगी भर खुद को अभिनेता कम फिल्मप्रेमी ही मानते रहे। जवानी के दिनों में फिल्में देखने मसूरी से रात की बस पकड़ रीगल पर आधी रात वाला शो देखा करते थे। बॉबी फिल्म के लिए चलने वाली बॉबी बस और जगाद्रि थियेटर में बिजली गुल होने पर बाहर चारपाई और चाय के दिन उनके जहन में हमेशा ताजा रहे। साक्षात्कारों में बताते थे कि किस तरह फिल्मों में राजेश खन्ना की एंट्री पर उनके दिल की धड़कनें तेज हो जाया करती थी।
एक अंग्रेज के शरीर में भारतीय टॉम को शुरुआती दिनों में फिल्मों में अंग्रेजों के ही रोल मिले। एक आध बार लोगों ने रंग रुप को लेकर सवाल उठाए तो बहुत खूबसूरती से उन्होंने सभी सवालों का जवाब एक शेर से दिया-
शक लोगों ने मुझ पे किया, उस शक को दूर मैंने किया, शक करना उनका कसूर नहीं था, शक दूर करना मेरा काम था ।
और क्या खूब उन्होंने लोगों का शक दूर किया । 300 किरदार वो तो सिर्फ फिल्मी स्क्रीन पर । टीवी और रंगमंच की दुनिया में तो अनंत किरदारों का अभिनय है,जिसे समेटना मुश्किल है । टॉम के जीवन विस्तार के अनुभव के आगे
शब्द कम पड़ जाते हैं। इतने अलग तरह के अनुभव एक जि़ंदगी में कम ही लोगों को नसीब होते हैं। वो खुद को ओल्ड स्कूल बताते थे।
सहज,सरल मद्धम गति से चलने वाले लम्हों को खूबसूरत मानते थे और इसी तरह की मीठी ज़िंदगी उन्होने जी। उनकी आंखों में ,जबान में और पूरी शख्सियत में एक रुहानी सुकून सा था। जिसकी तस्दीक उनसे मिलने वाले शख्स किया करते थे। राजपुर की शांत वादियों में पीछे से बजता नदियों का संगीत और पारिवारिक दर्शन की नफासत का असर ताउम्र शख्सियत के साथ-साथ चलता रहा ।