
मनीषा भल्ला
बतौर रिपोर्टर हम कई हादसे कवर करते हैं। वह कवरेज केवल नौकरी का हिस्सा नहीं होती है बल्कि उसे संजीदगी से कवर करना ज़िम्मेदारी भी होती है। आप संजीदा पत्रकार हैं तो संजीदगी अपने आप आ जाती है।
मैंने अपनी 15 साल की नौकरी में छोटे-बड़े कई हादसे कवर किए लेकिन आज सालों बाद भी चार हादसों में पीड़ित और उनके परिजनों की अपनों को ढूंढती डबडबाती आंखे नहीं भूलती। मैंने बतौर इंटर्न सबसे पहला डबवाली अग्निकांड कवर किया था। जिसमें एक स्कूल के वार्षिक समारोह में आग लगने से दर्जनों छोटे-छोटे बच्चे और उनकी मांए जलकर राख हो गईं थीं।
आज भी डबवाली इस अग्निकांड को नहीं भूला है। हादसे के बाद कई सालों तक डबवाली सोया नहीं था, डर और भय से औरतें और बच्चे रात भर जगे रहते थे। जिनके बच्चे या जिनकी माएं जलकर राख हो गईं थी वे परिवार पत्थर हो चुके थे। हालात यह थे कि शहर में जगह-जगह काउंसलिंग सेंटर खोलने पड़े थे। चाहे किसी घर में किसी की मौत हुई थी या नहीं लेकिन मातम हर घर में था। इस हादसे ने पूरे डबवाली को एक परिवार बना दिया था। समझ नहीं आ रहा था उस खौफनाक दिन की याद से जो ज़िंदगी में बवंडर ले आया था उसे कैसे भूलें। क्या करें कि सपने में वो मंज़र न आए। लाश तो लाश होती है लेकिन जली हुए लाशें देखना…मैं खुद भी कई महीनों तक सहमी रही थी। नींद नहीं आती थी। रोती हुई मांओं की शक्लें याद आती रहतीं थीं।
दूसरा हादसा था खन्ना रेल हादसा। जिसमें यहां-वहां छर्रों की तरह लाशें और उनके टुकड़े बिखरे हुए थे। आसपास के गांववालों ने बहुत इमदाद की। लेकिन अपनों को ढूंढ रहे हताश लोग, परेशान लोग, अपनों की लाशों की शिनाख्त कर रहे लोग मैं ज़िंदगी में नहीं भूल सकती।
तीसरा गुजरात भूकंप के ठीक एक साल बाद राहत कार्यों का जायज़ा लेने के लिए मैं एक महीने के लिए गुजरात गई। देखा कि भूकंप के एक साल बाद तक लोगों की आंखे नम थी, जार – जार रोते थे। उनमें एक औरत थी जो भूकंप में अपने 15 साल के बेटे को खो देने से दिमागी तौर पर पागल हो गई थी। वह दरवाज़े पर ही बैठी रहती, हमेशा यही बोलती कि ” वो आएगा, वो आएगा,” हाथ में कंघी लेकर कहती रहती कि ” मुझे उसकी कंघी करनी है।” मेरी तरफ देखकर मुस्कुराती। बताती कि ” वो आने वाला है, बस ज़रा इंतज़ार करो। बस आता ही होगा।” मेरे पीछे खड़ा उस महिला का सारा परिवार रो रहा था लेकिन वो मां हंस रही थी। खुश थी कि बेटा बस अभी आने ही वाला है, घर से दही लेने के लिए गया था, आता ही होगा। मैं उस मां को कभी भूलती ही नहीं हूं।
चौथा हादसा था मोहाली रैनबेक्सी की फैक्ट्री में हुआ धमाका, जिसमें कई नौजवान जल गए थे। रात में ऑफिस से घर आते हुए इतना ज़ोर के धमाका हुआ कि कुछ समझ नहीं आया। लगा कि कोई प्राकृतिक आपदा आने वाली है। चंडीगढ़ में अफरा तफरी मच गई कि आखिर धमाका किस चीज़ का था..सभी डरे हुए थे, अजीब धमाका था, लोगों को समझ ही नहीं आ रहा था, फिर पता लगा कि रैनबेक्सी की फैक्ट्री में केमिकल धमाका हुआ है। मैं उन दिनों हेल्थ बीट देखा करती थी। मुझे ऑफिस से फोन आया कि फौरन पीजीआई पहुंच जाओ और फोन पर अपडेट्स दो।
मैं पीजीआई पहुंची। स्कूटर पार्किंग में लगाया। जैसे ही इमरजेंसी के सामने पहुंची तो वहां हाहाकार मचा हुआ था, रोना-चिल्लाना..उधर जले हुए लोग स्ट्रेचर पर अंदर लाए जा रहे थे..परिजन उन्हें देखने के लिए एक दूसरे पर चढ़े जा रहे थे कि कहीं मेरा बेटा तो नहीं, मेरा दामाद तो नहीं, मेरा भाई तो नहीं…। पीजीआई इमरजेंसी में हमेशा आम दिनों में भी अंदर जाना बहुत मुश्किल है। गेट पर कड़ा पहरा रहता है। लेकिन रिपोर्टरों के भी अपने सौ जुगाड़ होते हैं। भीड़ को चीरती हुई मैं अंदर चली गई। अंदर इमरजेंसी में सफेद-सफेद पाउडर सा शरीर पर चिपकाए हर जगह जले हुए लोग पड़े कराह रहे थे। मैंने एक राउंड लगाया और घबराहट के मारे कुछ देर के लिए बाहर आ गई। फिर दोबारा अंदर गई ताज़ा आंकड़े लिए, कुछ हालात देखे, फिर बाहर आई। अंदर से जब भी बाहर आती तो भीड़ का रेला मेरी ओर आ जाता, अपनों की हालत की जानकारी लेने के लिए।
वहां और अखबारों के जर्नलिस्ट भी थे। मैं एक कोने में फोन पर ऑफिस बात करके वहीं कुछ देर के लिए अकेली खड़ी थी। एक बहुत बुज़ुर्ग सरदार जी मेरे पास आए। हाथ जोड़कर रोते – रोते कहने लगे कि ” बीबा जी मेरा बेटा भी ड्यूटी पर था, मुझे किसी तरह बता दो कि क्या वो भी अंदर है, है तो उसकी हालत क्या है।” उससे पहले मैं उस बुज़ुर्ग को देख रही थी कि वह पागलों की तरह अंदर जाने के लिए पहरेदार की मिन्नते कर रहा था, कभी दीवार पर टंगी लिस्ट देखता तो कभी भागा-भागा अंदर जाने की कोशिश करता। खैर उसने मुझे अपने बेटे का नाम बताया। मैं दोबारा अंदर गई , पता किया लेकिन इमरजेंसी में कहीं उस नाम का कोई नौजवान नहीं मिला।
मैंने बाहर आकर उन सरदार जी को दिलासा दिया कि इस नाम का अंदर कोई नहीं है, इसका मतलब है कि आपका बेटा ठीक ठाक है। उसने पूछा पक्का, मैंने कहा पक्का। देर रात के बाद जब सुबह होने वाली थी तो पीजीआई दूसरा रिपोर्टर डयूटी पर आ गया और मैं घर चली गई। मैंने सुबह का अखबार देखा तो देखा धमाके में मरे हुए लोगों के परिजनों की सूची में उन सरदार जी की रोते-बिलखते हुए तस्वीर सबसे ऊपर लगी हुई थी। मेरा दिल बैठ सा गया, बीपी लो होने लगा, सांस सी नहीं आ रही थी।
हादसों में जिन घरों की औरतें मर जाती हैं उन घरों से रौनक चली जाती है, जिन घरों के मर्द मर जाते हैं उनके चूल्हे और घर की रौशनी बुझ जाती है , जिनके बच्चे मर जाते हैं वह परिवार सारी ज़िंदगी बच्चे की लाश का बोझ ढोते हैं, वह मां या बाप भी ग़म में जल्दी मर जाते हैं, हादसों में लाशों का अंबार, लाशों का ढेर किसी भी रिपोर्टर को भी परेशान करता है। व्यथित करता है। वह नम, गीली आंखे, वह झुके कंधे, वह रूंधा गला आसानी से नहीं भूलता है।
गुजरात भूकंप में हुआ नुकसान इसलिए मानव निर्मित था कि भूकंप आने पर बड़ी-बड़ी नामी इमारते, अपार्टमेंट जड़ से उखड़ गए थे, ताश के पत्तों की तरह ढेर हो गए थे। मानसी अपार्टमेंट था शायद जो कुछ सेकेंड में मलबे में बदल गया था।
हादसे जब मानव निर्मित हों तो प्रशासन और सरकारों पर कम से कम मीडिया का गुस्सा तो फूटना ही चाहिए, सवाल होने चाहिए, ऐसे में पीड़ित प्रशासन या सरकार को कटघरे में खड़ा करने की हिम्मत नहीं रखता है, यह काम मीडिया का है।
ऐसे में कोई अशिक्षित, संवेदनहीन अगर यह लिख देता है कि बनारस हादसा ग्रहों या नक्षत्रों के योग की वजह से हुआ तो उस जर्नलिस्ट को मीडिया में तो नौकरी करने का हक नहीं है। लेकिन यहां कुंए में ही भांग पड़ी हुई है, जब अखबार का प्रबंधन और संपादकीय ही संवेदनहीन हो तब कोई क्या करेगा। इनके लिए यही कहना है कि जनाब अपनों की लाशें बहुत बोझिल होती हैं कुछ तो संवेदना रखें।